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Saturday, 9 July 2016

जंगली कबूतर








इस्मत चुग़ताई का उपन्यास




कुछ अंश
जंगली कबूतर
आधे अँधेरे कमरे में, आबिदा दोनों हथेलियों से कनपट्टियाँ दबाए गुमसुम बैठी थी। रात आहिस्ता-आहिस्ता सुर्मई धुएँ की तरह कमरे में भरती जा रही थी। मगर फ़िज़ा से ज़्यादा गहरी तब्दीली उसके वीरान दिल में घुटी हुई थी। आँसुओं के सोते सूख चुके थे और पलकों में रेत खनक रही थी। पास के बंगले में टेलीफ़ोन की घंटी बराबर सिसकियाँ ले रही थी। घर वाले शायद कहीं बाहर गए हुए थे। नौकरों के क्वार्टर से धीमी-धीमी बातों और बरतनों की झनकार सुनाई दे रही थी।
हाथ बढ़ाकर आबिदा ने डबल बेड पर पड़े हुए कवर की सिलवट मिटा दी। काश, इनसान के हाथों में इतना दम होता कि दिल पर पड़ी तह-ब-तह शिकनों को भी मिटा सकता। दहशत से डरकर उसने सरहाने का लैंप जला दिया। बेड कवर की हरी और सुर्मई कलियाँ खिल उठीं...आधा पलंग जाग उठा था मगर वह हिस्सा जहाँ माज़िद सोते थे, क़ब्र जैसे अँधेरे में डूबा रहा। उनके सरहाने का लैंप आबिदा की पहुँच से दूर था और वह ये भी जानती थी कि बेड-लैंप की रौशनी उस अँधेरे को न तोड़ सकेगी, जिसमें वह डूब चुके थे।
‘इद्दत’ ख़त्म हुए भी छः माह बीत चुके थे। अम्माँ कितनी बार लिख चुकी थीं-कि बेटी ‘ढनढार’ घर में कब तक अकेली जान को घुलाती रहोगी। मगर आबिदा ने दुख को जिंदगी का सहारा बना लिया था। उसके पास और उनकी कोई दूसरी निशानी भी तो न थी। माज़िद के ग़म में एक पहलू और भी था। जैसे वह ख़ूब जानती थी कि डबल बेड़ का आधा हिस्सा कभी उजागर न होगा। हाथ छू जाने पर ‘उनका’ जिस्म चौंककर आलिंग्न की दावत कभी न देगा। उस कमरे में उनके बेहदख़ास सिगरेट की खुश्बू कभी न महकेगी। अब कोई स्नानघर में सुबह बड़-बड़ करके बेसुरे गीत न गाएगा। न बिना शेव किया किसी का खुर्दरा गाल ठुड्डी को छीलेगा।
ठीक खिड़की के पास चमेली की झाड़-झंखाड़ बेल पर चिड़ियाँ ऊधम मचा रही थीं। कोई बैलगाड़ी चूँ-चूँ आवाज़ करती हुई सड़क पर गुज़र रही थी। आबिदा दबे पाँव उठी, अलमारी खोल कर माजिद की एक क़मीज़ निकाली। उसे खूब दोनों हाथ से मसला। फिर बड़ी सावधानी से ज़मीन पर फेंक दी। कोट, पतलून और टाई बेढंगेपन से आधी कुर्सी पर, आधी नीचे डाल दी। दराज़ में से एक सिगरेट और लाइटर निकाला। सिगरेट सुलगाई। माज़िद की तरफ़ का लैंप ऑन कर दिया, और सुलगती हुई सिगरेट ऐश-ट्रे के ऊपर टिका दी।
एकदम कमरे की वीरानी रफू-चक्कर हो गई। आबिदा ने इत्मीनान से झूलने वाली कुर्सी पर बैठकर माज़िद का स्वेटर बुनना शुरू कर दिया। मकन बाजी की शादी में पहली बार बारातियों के साथ क़हक़हे लगते उसने भाई माज़िद को देखा था। वह उसके दूर के रिश्ते की मौसी के बेटे थे। देखा नहीं था, मगर सुना बहुत कुछ था उनके बारे में। बड़े फ़्लर्ट हैं। अनगिनत नाकाम और कामयाब इश्क लड़ा चुके हैं। हर साल उड़ती-उड़ती ख़बर आती थी कि भाई माज़िद ने किसी एक्ट्रेस से शादी कर ली। फिर सुनते, शादी होने वाली है। मगर किसी दोस्त की तलाक़शुदा बीवी से। कभी सुना, एक लेडी डॉक्टर पर मेहरबान हैं। सिविल मैरेज होने ही वाली है। और वह स्कूल टीचर, जिससे बेहद दोस्ती थी खुदकुशी की धमकी दे रही है। ये बातें सुन-सुन कर बहुत सारा ग्लेमर उनके लिए पैदा हो गया था। भाई माज़िद के व्यक्तित्व से लड़कियाँ मज़े ले-ले कर उनके इश्क के तजुर्बों पर चुहलबाज़ियाँ करतीं।
बजिया की शादी के बाद ख़ानदानी दावतों में भाई माज़िद को और क़रीब से देखने का मौक़ा मिला। कहीं से भी यसुफ़* द्वितीय न थे, लेकिन था कोई चार्म कि मिलकर कुछ जी जलता, कुछ दिल में गुदगुदियाँ-सी होतीं। कई लड़कियाँ तो बेतरह आशिक भी हो चुकी थीं और भाई माज़िद से छेड़ी जाती थीं।
‘‘अच्छा तो आप हैं आबिदा !’’ उन्होंने छूटते ही छींटा कसा था। ‘‘जी क्या आप से किसी ने मेरी शिकायत की ?’’ आबिदा ने चट से जवाब दिया। ‘‘आं...नहीं तो, शिकायत तो नहीं की, ये मैंने कब कहा ?’’ ‘‘आपने कहा तो कुछ इसी अंदाज़ में।’’ ‘‘चेहरा पहचानने में भी माहिर हैं आप ?’’
‘‘जी, शुक्रिया !’’ और वह बड़ी तेज़ी से मुड़कर ख़ाला बेगम का हाथ बँटाने डाइनिंग रूम में चली गई थी। उसे गुस्सा आ रहा था क्योंकि उसका दिल ख़्वहमख़्वाह इस बुरी तरह धड़क रहा था। ‘‘ए बी, ज़रा खीर के प्यालों पर पिस्ते की हवाइयाँ तो कतर कर छोड़ दो, ये लड़कियाँ तो खुदा जाने क्या पच्चीकारी कर रही हैं।’’ ख़ाला बेगम ने प्याज़ के लच्छे सीख़ कबीब की डिश में जमाते हुए कहा।
आबिदा ने देखा-चार पाँच लड़कियाँ दो खीर के प्यालों पर बजिया और उनके दूलहा का नाम पिस्ते की हवाइयों से लिखने में जुटी हुई थीं। वह झुक कर पढ़ने लगी तो शबाना ने शरारत से उसके होठों पर चाँदी का वर्क़ लगा दिया। शबाना भाई माज़िद की छोटी बहन थी। वह हर लड़की को भाभी कहकर चिढ़ाया करती थी। खाना खिलाते में वह भाई माज़िद के पास गुज़री तो उन्होंने

• पैगम्बर, जिनकी सुन्दरता का तज़किरा क़ुरान-शरीफ़ में आया है।
छींटा कसा। ‘‘लोग ख़ातिर-मदारन की आड़ में तर-माल उड़ा रहे हैं।’’ ‘‘अच्छा आप अंदर की बात भी जानते हैं या ऐनक में एक्स-रे लगी है जो पेट के अंदर का हाल मालूम कर सकती है।’’ उसने खट्टेपन से जवाब दिया, खुदा समझें, दिल फिर कुलांचें भर रहा था। ‘‘पेट का एक्स-रे करने की ज़रूरत नहीं, होठ जुर्म की गवाही में खुद बोल रहे हैं।’’ तब चुड़ैल शबाना खिलखिलाने लगी थी। पोंछने के बाद भी होठों पर चाँदी के वर्क़ का असर बाकी था। लेकिन जब उसकी नज़र भाई माज़िद के सामने रखे खीर के प्याले पर पड़ी तो दम निकल गया। ‘‘आबिदा-माज़िद’’। पिस्ते की हवाइयों से लिखा हुआ था। उसने चाहा प्याला बदल दे। मगर हाथ बढ़ाया तो माज़िद ने रोक दिया। ‘‘जी ये मेरे हिस्से का है।’’ ‘‘मैं...मैं...वह...मैं दूसरा ला देती हूँ’’ वह बौखला गई। ‘‘अगर अम्मी ने प्याला देख लिया, या किसी बूढ़े-बुढ़िया की नज़र पड़ गई तो क़यामत टूट पड़ेगी।’’
‘‘क्यों, इसमें क्या बुराई है ?’’ ‘‘कुछ नहीं....नहीं’’, उसने जल्दी से पाँचों उँगलियों से प्याला ढक लिया। ‘‘तो फिर...छोड़िए मेरा प्याला,’’ माज़िद की पाँचों उँगलियाँ ऊपर सवार हो गईं। आबिदा ने झिझककर हाथ खींच लिया। ‘‘ओह !’’ भाई माज़िद ने प्याला का राज़ मालूम करके लाल होना शुरू किया, आबिदा को काटो तो ख़ून नहीं। वह तेज़ी से गिलासों में पानी उँड़ेलने लगी। बाद में उसे हँसी आया करती थी मगर उस रोज़ उसने शबाना की वह टाँग ली थी कि रोते-रोते निगोड़ी का मुँह सूज गया। साथ में माज़िद भाई का भी वह धोबी-पाट किया कि याद ही करते होंगे। क्योंकि शबाना ने सब रो-रो के अपने भैया से जड़ दिया। ‘‘शबाना को रुलाकर क्या मिला, मुझसे नफ़रत के इज़हार के और भी तरीक़े हो सकते थे। वैसे इज़हार की, आपको ज़्यादा ज़हमत की जरूरत नहीं, मैं ऐसा कुंद-ज़हन नहीं हूँ।’’ उन्होंने उसे दूसरी किसी दावत में घेर लिया। ‘‘वह...मैंने ग़ुस्सा में...’’ उसे गुस्सा आ रहा था कि उसे शबाना पर ऐसा शदीद गुस्सा क्यों आया ?
‘‘वह बच्ची है। समझती है जैसे वह अपने भैया पर जान छिड़कती है और भी सब लड़कियाँ वैसे ही महसूस करती होंगी। आप उसे पसंद हैं। बेइंतिहा पसंद हैं। अपनी समझ में वह निहायत दिलचस्प हरकत कर रही थी। उस बेचारी के फ़रिश्तों को भी नहीं मालूम था कि आपको उसने इतनी बड़ी गाली दे दी।’’ ‘‘मैं..मुझे बड़ा अफ़सोस है। न जाने क्यों मेरी ज़बान को आग लग गई और मैंने बेचारी को डाँट दिया,’’ आबिदा का जी चाहा, डूब मरे। ये सब क्या हो रहा था। ‘‘सुनिए !’’ वह जाने लगी तो भाई माज़िद ने उसे रोककर पूछा। ‘‘क्या आपसे जो कुछ किसी के बारे में कहा जाए, वह बग़ैर पूछे-गुछे यक़ीन कर लिया करती हैं।’’ ‘‘नहीं तो।’’ ‘‘फिर आपने उसे ताने क्यों दिये ?’’ ‘‘मैंने..पता नहीं मुझे उस वक्त क्या हो गया था..मैं उससे माफ़ी माँग लूँगी।’’ ‘‘और ज़रा मुझसे माफ़ी माँगने के बारे में भी ग़ौर कीजिएगा। अगर कोई आपके बारे में ऐसी वाहियात बातें कहता तो बख़ुदा मैं कभी यक़ीन न करता।’’
‘‘क्यों यकीन न करते, आपको क्या पता कि...’’ ‘‘मैं जानता हूँ।’’ ‘‘क्या जानते हैं ?’’ ‘‘आपको जानता हूँ...मेरी बहनें मुझे हर ख़त में आपकी एक-एक बात लिखती हैं। यहाँ तक कि किस दिन आपने कौन से कपड़े पहने थे।’’ ‘‘ओह...’’ आबिदा को फिर गुस्सा आने लगा। लेकिन सिर्फ़ खुद पर। ‘‘अच्छा ये बताइए, आवारा, बदमाश और लफंगा होने के इलावा मुझमें और क्या-क्या कमियाँ हैं ?’’ ‘‘कुछ नहीं,’’ उसने मरी हुई आवाज़ में कहा। भाई माज़िद तेज़ी से मुड़कर और लोगों से बातें करने लगे। भाई माज़िद चले गए। उससे मिले भी नहीं, अम्मी को सलाम करने आये। वह अंदर दुबकी बैठी रही। उन्होंने उसके बारे में पूछा तक नहीं।
मगर एक सप्ताह के अंदर उसका पैग़ाम आ गया। बजिया ने बताया कि आबिदा की मर्जी़ पुछवायी गई है। वैसे अम्मी ने तो हामी भर ली है। ‘‘यों ही।’’ ‘‘और जो मैं इनकार कर दूँ तो...’’ ‘‘ए हे दीवानी हुई हो, इतना अच्छा लड़का।’’ ‘‘दुआ करें, अगर मुझे पसंद न हो तो ?’’ ‘‘ए चलो बनो मत, हमसे उड़ती हो, मुँह से बड़-बड़ बकती हो, ज़रा आईना उठाकर सूरत तो देखो।’’ और लाजवाब होकर आबिदा फूट-फूटकर रोने लगी। ‘‘ए बी दीवानी हुई है, उसमें क्या ऐब है, दिल ही तो दिया है कोई खुदा न करे इज्जत तो नहीं दे दी।’’ ‘‘बजिया...मुझे डर लगता है।’’ ‘‘काहे से ?’’ ‘‘पता नहीं।’’
‘‘चलो दीवानी न बनो, फिर कल शादी थोड़ी हो रही है, माज़िद मियाँ ने तुमसे ख़तों-किताबत की इजाज़त तलब की है।’’ ‘‘नहीं भई..दूसरे, ख़तो किताबत से क्या होता है।’’ ‘‘ए बी तो क्या कोर्टशिप लड़ाने के इरादे हैं। अरी तुम तो इतनी खुशनसीब हो कि बातचीत का भी मौक़ा मिला। हमने तुम्हारे दूलहा भाई की एक झलक भैंस की कोठरी में से छुपकर देखी थी। और अल्लाह क़सम इस एक झलक ने अपने तो छक्के छुड़ा दिए। बस दिन-रात ये लगता था, वह आए हैं। बैठे घूर रहे हैं। आँखों ही आँखों में छेड़ रहे हैं। तौबा !’’ बजिया हँसते-हँसते लोट गईं।
‘‘दिल फेंक बेशक हूँ मगर इतना यक़ीन दिलाता हूँ कि अब तक इस दिल को किसी ने लपका नहीं है।’’ माज़िद ने अपने ख़त में लिखा, ‘‘और ये दावा नहीं कर सकता कि तुमसे शादी करने के बाद ज़ाहिदे-ख़ुश्क बन जाऊँगा, ये तुमको, फैसला करना होगा कि तुम अपनी चीज़ वापस लेकर किसी और को देने दोगी या नहीं ?’’ ‘‘मैं दिल लेने-देने की चीज़ नहीं समझती, दिल कुछ भी हो, आपकी मिल्कियत ही रहेगा। आप जी चाहे तो बाँटते फिरिएगा। मगर ये याद रखिए कि मैं भागीदार नहीं बन सकूँगी’’, आबिदा ने जवाब दिया।
‘‘भई बड़ी कट-हुज्जती हो। इसका ये मतलब है हमारी शादी नहीं हो सकती।’’ माज़िद ने लिखा। ‘‘नहीं इसका ये मतलब नहीं,’’ आबिदा ने बड़े सोच-विचार के बाद जवाब दिया। शादी के बाद आबिदा को मालूम हुआ कि जो चिट्ठियों के द्वारा जीत सकता है, वह जब आमने-सामने हो इंसान कैसा बेबस, कितना अपाहिज महसूस करता है। उसने कभी किसी दूसरे मर्द से मुहब्बत तो दूर उसके ख़्याल को भी दिल में जगह नहीं दी थी। माज़िद के इश्क में उसे खुदा का जलवा नज़र आया। दोनों हाथों से अपनी दुनिया समेटकर उसके वजूद में डुबो दी। मगर औरत वाली ख़ुद्दारी को हाथ से न जाने दिया। अगर माज़िद को आने में कभी ज़रा देर हो जाती तो वह बेक़रार डबडबाई आँखों से दरवाज़ा तका करती लेकिन जब वह घर में दाखिल होता तो अपने दिल की धड़कनों को मसल कर बड़ी ‘बेताल्लुक’ सी बनकर किसी फ़िजूल से काम में लग जाती। वह बेक़रारी से उसे अपने आग़ोश में खींचता तो वह ज़ब्त करके उसके जोश पर ठण्डे पानी के छींटे-डाल देती। ‘‘अरे-अरे....ये क़ालीन तो देखिए, ठीक है ना।’’ और माज़िद क़ालीन को देखने लगता। इतने में उसका जोश ठंडा पड़ जाता। वह उसे प्यार की तरफ ध्यान देने का कम से कम मौक़ा देने के लिए किसी बेकार-सी आर्थिक और राजनीतिक समस्या में उलझा देती।
और तो और वह इस डबल बेड पर भी ज़र्रा-बकतर (कवच) न उतारती। क्योंकि वह उससे डरती थी। वह हरजाई था ना ! वह सोचा करती अगर उसने वाक़ई अपना सारा अस्तित्व उसके सुपुर्द कर दिया और अगर उसने उससे दग़ा की तो फिर वह कहीं की न रहेगी। फिर वह जिंदा न रह सकेगी। इसलिए वह उसे हर वक्त यही जताती कि उसके इलावा भी दुनिया में काम की चीज़ें हैं, जो उसकी दिलचस्पी का कारण हैं। मगर एक वाक़िया ने उसकी पॉलिसी को चकनाचूर कर दिया। वही हुआ जिसका उसे डर था। माज़िद के अतीत को वह भूल जाना चाहती थी मगर उसने बढ़कर उसका गला ही पकड़ लिया। एक दिन उसे किसी अनजान व्यक्ति ने फ़ोन किया कि माज़िद को तुरत अस्पताल भेज दो। कमरा नंबर 6 में उसकी बीवी के बच्चा हुआ है। बच्चा तो तंदुरुस्त है मगर माँ का आख़िरी वक़्त है। जे.जे. अस्पताल में है। जब माज़िद घर में दाख़िल हुआ तो वह आबिदा को देखकर बदहवास हो गया। वह उस वक़्त से वहीं टेलीफ़ोन के पास बैठी थी।
अभी तो उसके बियाह की मेहँदी भी नाखूनों पर चमक रही थी मगर उसका जिस्म सर्द था और चेहरा मिट्टी की तरह पीला। ‘‘तुम्हारी बीवी के बच्चा हुआ है।’’ उसने मुस्कुराकर कहा। ‘‘अरे अभी तो शादी को दो महीने भी नहीं हुए। भई वाह !’’ उसकी आवाज़ सुनकर माज़िद के गए हुए हवास लौट आए और उसने उसे बाँहों में समेट लिया।
‘‘मज़ाक मत करो, इनसान हो या दरिंदे,’’ वह उसे झटककर दूर हो गई, ‘‘एक लाचार औरत तुम्हारे कमीनेपन का शिकार हो रही है और तुम...’’ ‘‘आबिदा, ये क्या कह रही हो ?’’ ‘‘मैंने तुम्हें हर जगह फ़ोन किया...’’ ‘‘मगर...’’ ‘‘जे.जे. हॉस्पिटल में...बच्चा तंदुरुस्त है, मगर माँ का आख़िरी वक़्त है।’’ उस पर ‘हिज़यानी कैफ़ियत’ तारी हो गई। ‘‘तुम्हें क्या हो गया है...तुम्हारे सर की क़सम। तुम्हारे सिवा मेरी कोई बीवी नहीं।’’ ‘‘तो क्या तुमने उसे तलाक दे दिया दरिंदे...अपने बच्चे की माँ को’’...अगर उसका बस चलता तो वह उसका गला घोंट देती। माज़िद ने उसे सँभालना चाहा मगर उसने उसका मुँह खसोट डाला। कपड़े फाड़ दिये। और दोनों हाथों से मुँह छुपाकर फूट पड़ी।
‘‘आबिदा खुदा के लिए...रो मत। मेरी बात सुनो।’’ ‘‘मुझे हाथ न लगाओ, तुम समझ रहे हो, मैं अपनी क़िस्मत को रो रही हूँ, नहीं-नहीं ख़ुदा क़सम मैं उस बदनसीब औरत के लिए रो रही हूँ, जिसके साथ तुमने धोखा किया।’’ ‘‘ओह, खुदा ये क्या क़िस्सा है।’’ माजिद को कुछ अक़ल आई। उसने जे.जे. हॉस्पिटल फ़ोन किया। ‘‘हैलो....प्लीज़ क्या आप बता सकते हैं कि कमरा नंबर 6 में मरीज़ का नाम क्या है ?’’ बड़ी कोशिश के बाद मालूम हुआ, कमरा नंबर 6 खाली है। ‘‘ओह..तो वह मर गई। ए खुदा..तुम कातिल हो..तुमने उसे मार डाला...और तुम्हारा बेटा..बदनसीब बच्चा, अब उसका क्या होगा...यतीमख़ाने में पलेगा...नहीं...वह यतीमखाने में नहीं पलेगा। उसे माँ का प्यार नहीं मिला और उसका बाप शैतान है।’’

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